- 4 अप्रैल माखनलाल चतुर्वेदी जयंती पर विशेष:-प्रखर राष्ट्रवादी कवि शिरोमणी: पंडित माखनलाल चतुर्वेदी | सच्चाईयाँ न्यूज़

सोमवार, 3 अप्रैल 2023

4 अप्रैल माखनलाल चतुर्वेदी जयंती पर विशेष:-प्रखर राष्ट्रवादी कवि शिरोमणी: पंडित माखनलाल चतुर्वेदी


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 अप्रैल माखनलाल चतुर्वेदी जयंती पर विशेष-

 

प्रखर राष्ट्रवादी कवि शिरोमणी: पंडित माखनलाल चतुर्वेदी

 

     - सुरेश सिंह बैस "शाश्वत" 

 

       एक लेखक या कविबड़ा या महान कैसे होता हैइसके साथ ही अहम सवाल यह है कि उसने अपने समय और आसपास के साथ कितना न्याय किया हैदेशकाल और परिस्थिति के भीतर बाहर आदमी को देखने का उसका नजरिया क्या हैयह चीजों को पदार्थों की तरह छूता है या उनमें उन तत्वों को पकड़ता हैजो मनुष्य और उसकी दुनिया को आगे बढ़ाते हुए सुंदर बनाने में सहायक होते हैं। नदियांपहाड़खेतमैदान उसके लिए मात्र प्राकृतिक उपादान है या ये कविता के जन्म के समय सोहर गाने वाले स्वर हैंजो कविता को दीर्घजीवी मूल्य प्रदान करते हैं। भाषा उसके लिए मात्र अभिव्यक्ति होती है या उसके जरिए वह युग के गलत को बदलने का मौसम तलाशता है?


ऐसे अनेक प्रश्न कालजयी कवि माखनलाल चतुर्वेदी के काव्य में उत्तर बटोरते हुए नजर आते हैं। उनके सभी उत्तर प्रकृति के बीच बड़े होकर अपना बयान देते है 

 माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीयवादी कविता के प्रमुख कवि माने जाते हैं। उनकी पत्रकारिता स्वाधीनता आंदोलन की प्रखर उद्घोषक रही हैं। इन दो पक्षों ने आम जनता की दृष्टि से उनके नाटकनिबंधसंस्मरण और लघु कथात्मक स्मरणों को ओझल ही रखारचनाधर्मी साहित्यकार का संपूर्ण रचना संसार उसके साहित्य व्यक्तित्व को उद्घाटित करता है। उसे खंडों में बांटने से मूल चेतना का स्वर दबा-दबा सा लगने लगता है। रचना संसार के चहचहाते पक्षीकल कल का नाद करती प्रवाहित प्रेम सरिताजीवन को सार्थक करती उसकी कर्म चिंता उसके घर परिवार के बच्चों को जीवंत स्वर घने हरेभरे जंगल की पगडंडी सी उसकी कामनारेखा का अनुभव तब तक नहीं होता ,जब तक यह न जान ले कि चेतना किस रुप और किस नाम से उसके मानस केंद्र में अचल स्थापित है। केंद्रीय चेतना की अचलता या चलता जीवन  की दिशा और महत्व को निश्चित करती है। माखनलाल चतुर्वेदी का संपूर्ण साहित्य लगभग पांच हजार किताबी पृष्ठों में प्रकाशित हो सकाउनके अग्रलेखों और सम्पादकीय टिप्पणियों के अलावा उनकी प्रखर राष्ट्रीय दृष्टि भविष्य का संकेत देती वर्तमान को सहेजती राष्ट्र को अपनी ललकार से जगाती कर्मवीर की सामग्रीज्वालापुंज सी अनुभव होती है।

  

    एक भारतीय आत्मा. के जीवन की माखनलाल चतुर्वेदी चक्र परिधि न केवल भारत बल्कि संपूर्ण मानवता ही रही है। उस चक्र के केंद्रीय स्थान से अनेक कालखंड निकलकर वक्र के संपूर्ण व्यास को अपनी जकड़ में ले लेते हैं। ऐसा ही कुछ माखनलाला चतुर्वेदी के साथ थादेश की स्वतंत्रतास्वाधीनता और स्वराज सुराज उनके जीवन चक्र का केंद्र थापत्रकारितानिबंधसंस्मरणकहानीतो उसके कालखंड थे। यदि माखनलाल चतुर्वेदी के उद्देश्य केंद्र को समझा जा सके संकेतों में उनके संपूर्ण साहित्य को  हमारी मनः स्थिति के रंग बदल सकती है।

 

"कर्म है अपना जीवन प्राण

कर्म में बसते हैं भगवान।

कर्म है मातृ भूमि का मान

कर्म पर आओ हो बलिदान"।।

 

      राष्ट्रीयता वा राष्ट्रवाद विवादों के घेरे में रहा है और अभी हैं। राष्ट्रवाद की जो संकुचित मानवता विरोधीबीभत्स कविभारतीयों ने अंग्रेजी शासन काल में देखा अनुभव कीउसने चतुर्वेदी जी को विवश किया कि राष्ट्रीयता को हम वैसे परिभाषित न करें जैसे अंग्रेज अपनी राष्ट्रीयता को करते रहे और सिखाने का प्रयत्न करते रहे। यूरोपीय लोगों के नजर में राष्ट्रीयता का वही अर्थ है कि उनके देश की सीमा में जितने लोग जन्मे पले बड़े हुए उन्ही की सुख सविधा का ध्यान रखना उनकी राष्ट्रीयता की पहली पहचान है। अपने देश के बाहर वे चाहें तो अन्य देश को गुलाम बनाएंवहां की जनता को गरीबीभूखमरी से मरने को बाध्य करेंउनकी संस्कृति को नष्ट करें। माखनलाल जी ने तिलक और गांधी जैसे उऋणतुल्य देशभक्तमनीषियों के संपर्क में भारतीय संस्कृति के मर्म को छू लिया। तिलकगांधीभगत सिंहचंद्रशेखर आदि क्रांतिदृष्टा महान व्यक्तियों के संस्मरण चतुर्वेदी जी ने उस आत्मीयता से लिखे जो उन आत्माओं में अपनी आत्मा की एक रुपता महसूस करने के बाद ही लेखनी में उतरते हैं । माखनलाल जी ने स्वयं भी अंग्रेजों की जेल का मजा चखा था उस जेल की यातनाओं का चित्रण उनकी बहुचर्चित कविता "कैदी और किल" में देखा जा सकता है। हां यह तथ्य बिलासपुर के संदर्भ में उल्लेखनीय है कि माखनलाल चतुर्वेदी जी ने बिलासपुर स्थित जेल में भी कारावास के कुछ समय बिताए थे और इसी समय इन्होंने अपनी प्रसिद्ध कविता -"मुझे तोड़कर फेंक देना उन राहों में वनमाली" का सृजन किया था! माखनलाल चतुर्वेदी जी ने दासता से विद्रोह हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है ये जन्मसिद्ध अधिकार का आत्मविश्वासी स्वर भले ही लोक मान्य तिलक के मुंह से निकला हो लेकिन वास्तव में यह हमारी उदात्त राष्ट्रीयता और मानवीय संस्कृति का स्वर है कि "मुझे तोड़कर उस राह में फेंक देना जहां से देश पर अपना शीश चढ़ाने वीर लोग निकल रहे हों। यह हमारी संस्कृति का बीजमंत्र है । माखनलाल जी की कोई भी गद्य या पद्य पढ़िएइन बीजमंत्रों की ध्वनियां दूर अतीत से आती सुनाई देगी या लगेगा कि ये ध्वनियां हममें से होती हुई भविष्य की ओर जा रही हैं। माखनलाल जी को अपने साहित्य के कालजयी होने पर पूरा विश्वास थाबाल्मीकिभवभूतिकालीदासतुलसीदासकबीर दासजायसी भी कुछ ऐसे ही क्रांतदृष्टा थे! माखनलाल जी को अपनी संस्कृति के. प्रवाह से जीवन्त तत्व मिलेजिन्हें उन्होंने


 अपने मानस में सहेजाजीवन से एक रस .किया और उन्ह फूलने फलने का अवसर जाने न दिया! माखनलाल जी का आत्म विश्वास वास्तव में संस्कृति के दीर्घजीवी तत्व की परख और सारसंग्रह का परिणाम है। उनकी चौकन्नी विश्वव्यापी दृष्टि विचारों और वादों के घेरे से परे विश्व मानस के सुख दुख की दृष्टा ही नहींसहयोगी और सहचर रही हैं। पर तेरे पथ को रोकें जिस दिन काली चट्टानें साथी तक लता भले ही तुझको लग जाए मनाने तब भी जरा ठहरकर सीकर संग्रह कर अपने चट्टानों के मनसूबे चढ़ चढ़ कर देता सपने" आज अप्रैल 2023 को हम माखनलाल चतुर्वेदी जी का जन्म तिथि मना रहे हैं। भारत में उन्नीस सौ बीस का वर्ष कई अर्थों में महत्वपूर्ण है। वह - राजनीतिक उत्तराधिकार का संधिवर्ष है.. व्यक्ति के रूप में भी और संस्था के रुप में भी यह आजादी की ब्रहमबेला थीस्वतंत्रता का संघर्ष अब स्वराज्य का भले ही कदम रुप में ही सहीरूप लेने लगा था ।राजनीतिक सुधार इसी संघर्ष के ही परिणाम थे। कर्मवीर का उदय एक तरह से इसी सुधार योजना के साथ हुआराजनीतिक क्षितिज पर मोहनदास कर्मचंद गांधी का उजास आगत सूरज की तरह


आजादी के दीवानों और सामजिक विचारकों में उनका नाम विस्मय पर गंभीरता से लिया जाने लगा था। उन्हें तब कर्मवीर भी कहा जाने लगा थाठीक ऐसे ही मध्य प्रांत में हिंदी साहित्य और कांग्रेस का नेतृत्व युवा माखनलाल जी को अपना उत्तराधिकार सौंपने लगा था।

   

   माखनलाल जी का संपादक और पत्रकार मानव और समाज की सेवा निष्काम भाव से करता रहता हैउसे प्रशंसा और प्रसिद्धी की चाह नहीं होतीसम्मान अपने पांव चलकर आए तो वह उसका सत्कार करता है। उसे पाने के तिकड़मी गलियारों की राह पकड़ना तो दूर उनका पता जानने की भी कोशिश नही करतावह अट्टालिका पत्थर होने की सार्थकता पाना चाहता है और यदि उसे अनायास किसी अच्छे स्थान पर लगा दिया जाए तो शिल्पी का विनम्र आभार मानता है। जैसे  मनस्वी माखनलाल जी ने कहा था "मैं वह पत्थर हूं जिसे शिल्पियों ने अयोग्य समझकर अलग कर दिया था किंतु सुंदर पत्थरों की कमी पड़ गई तो सर्वोत्त्म स्थान पर ला दियाआज जरूरत है कि हर पत्रकार और पत्रकारिता का इच्छुक हर व्यक्ति अपने में माखनलाल जी के विमलविनम्रसुविज्ञसुदृणलोकसेवीप्रचार परान्मुखीसजग और संवेदनशील पत्रकार की खोज करें और न मिले तो वैसा बनने का संकल्प लें।

 

    सन 1917-18 में चतुर्वेदी जी पेट की गंभीर बीमारी के शिकार हुए और दो वर्ष तक कानपुर में स्व गणेश शंकर विद्यार्थी के पास और इंदौर में डा. सरजू प्रसाद के पास उपचार कराते रहेयहीं उनका परिचय डा. संपूर्णानंद और पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी से हुआ जो बाद के वर्षों में अधिकाधिक घनिष्ट होता गया। दो वर्षों की लंबी बीमारी के बाद चतुर्वेदी जी ने सन 1919-20 में कर्मवीर के संपादक"का कार्यभार जबलपुर में ग्रहण किया था। . इस समय इनकी आयु मात्र तीस वर्ष के आसपास ही थीअपने संपादकीय दिनों के प्रारंभ में ही उन्हें सागर के रतौनी कस्बे में प्रस्तावित गोमांस हेतु कसाई खाने की समस्या का उन्हें सामना करना पड़ा। हुआ ये था कि एक बार चतुर्वेदी जी को अपने कार्यालयीन (कर्मवीर पत्र के संपादकीय (कार्य) हेतु किसी काम से मुंबई जाना पड़ा कलकत्ता मेल से ये बंबई के लिए रवाना हुएरास्ते में इटारसी जंक्शन के बुकस्टाल पर से उन्होंने कुछ समाचार पत्र व मासिक आदि खरीदीसमाचार पत्रों में पायनिवर अंग्रेजी दैनिक भी थाजिसमे लिखे समाचार पर उनकी नजर देश के सागर जिले की रहली तहसील में स्थित रतौना में खुलने वाले कसाई खाने के विज्ञापन पर गईजिसे डेवनपोर्ट कंपनी रतौना में विशाल पैमाने पर खोलना चाहती थीयहां प्रतिदिन ढाई हजार गायें काटने की योजना थीयहां इतना बड़ा गौवध कसाई खाना खुलेगा और प्रदेश की जनता मूक दर्शक बनकर यह सब देखगी। इस विचार ने ही भूचाल ही ला दिया वे तिलमिला गए और अगले ही स्टेशन से गाड़ी बदलकर वापस जबलपुर आ गए। लौटते ही उन्होंने अपने सहायक ठाकुर लक्ष्मणसिंह चौहान के बुलवाया और पेपर की स्थिति को जानकारी ली। पता चला कि कर्मवीर का आखिरी फार्म मशीन पर जा चुका है और अब छपाई के लिए मशीन चालू ही होना है। तब चतुर्वेदी जी ने फार्म को रुकवाया और तुरंत यह मेटर दियाजिसमें कसाई 'खाने के प्रबल बिरोध में सशक्त आलेख लिखा थाउसके बाद कर्मवीर के प्रत्येक अंक में रतौनी कसाई खाने के विरोध में डटकर लिखा जाता रहाइसका असर यह हुआ कि शीघ्र ही डवनपोर्ट कंपनी को निराश होकर कसाई खाने की योजना त्याग देनी पड़ी। चतुर्वेदी जी के ओजस्वी भाषणों के कारण प्रांतीय शासन में  गिरफ्तार कर आठ माह के लिए बिलासपुर जेल भेज दिया ।

 मुझे तोड़ लेना वनमाली

उस पथ पर देना तुम फेंक! मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ पर जावें वीर अनेक!!

       - सुरेश सिंह बैस "शाश्वत"


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